प्रकाशित कविताओं की सूची - लाल्टू
पूरी सूची बना पाना मुश्किल है। बिल्कुल पहले की कुछ रचनाओं का ब्यौरा है, बाद की भी रचनाएँ मिल जाएँगी, पर बीच के दशकों की मिलना मुश्किल है। धीरे-धीरे पूरा कर रहा हूँ।
वयस्कों के लिए कविता संग्रह (11)
शीर्षक |
प्रकाशक |
प्रकाशन वर्ष |
अधूरी रहना कविता की नियति है |
संभावना (हापुड़) |
2024 |
कौन देखता है कौन दिखता |
परिकल्पना (लखनऊ) |
2021 |
थोड़ी सी जगह |
बोधि (जयपुर) |
2021 |
प्रतिनिधि कविताएँ - हरे से भरा था उसका बदन |
संभावना (हापुड़) |
2021 |
चुपचाप अट्टहास |
नबारुण (नई दिल्ली) |
2017 |
कोई लकीर सच नहीं होती |
वाग्देवी (बीकानेर) |
2016 |
नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध |
वाग्देवी (बीकानेर) |
2013 |
सुंदर लोग और अन्य कविताएँ |
वाणी (नई दिल्ली) |
2012 |
लोग ही चुनेंगे रंग |
शिल्पायन (नई दिल्ली) |
2010 |
डायरी में तेईस अक्तूबर |
रामकृष्ण (विदिशा) |
2004 |
एक झील थी बर्फ की |
आधार (पंचकूला) |
1991 |
किशोरों के लिए
दिन भर क्या किया, एकलव्य, 2024
बच्चों के लिए
भैया ज़िंन्दाबाद, आधार, 1994
नवसाक्षरों के लिए
देश बड़ा कब होता है, साक्षरता मिशन, 1996
पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएँ |
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अकार (56) |
जनवरी 2021 |
मिट्टी, मेरे देश की स्त्री, आखिरी डूब, हे पूर्वजो!, ग़फ़लत, रोशनी |
अदहन |
जुलाई-सितंबर 2018 |
बीच में कहीं बैठा हूँ, हर कोई किसी से बदला ले रहा है, उद्धरण मुक्तिबोध, रोशनी है अँदेरे वक्तों की, बच्चों सा खेल, उसकी कहानी |
अन्विति |
जुलाई 2024 |
कहाँ हो, हर कोई जानता है, रहम कर, कोलकाता, स्रष्टा, किंवदंती, पल |
अनुनाद – ई-मैगज़ीन
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-.09.16 |
तीन कविताएँ |
3.11.14 |
सात कविताएँ - जो नहीं है मैं उसे सामने रखता हूँ, यहाँ, ताप, डर, क्या ऐसे मैं चुप हो जाऊँगा, आज मैं, मर्सिया |
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2.2.10 |
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14.12.09 |
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18.1.09 |
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अभियान |
अप्रैल 2002 |
अंत में लोग ही चुनेंगे रंग |
फरवरी 1997 |
पाश की याद में |
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अमर उजाला |
2008 |
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अलाव |
जुलाई-अगस्त 2009 |
कोई बाहर से आता है; बाहर अंदर; अंत में लोग ही चुनेंगे रंग, मैं कहता हूँ पेड़, जाओ, सामने खुला मैदान है, जब शहर छोड़ कर जाऊँगा |
अक्षर पर्व |
नवंबर 2000 |
मनस्थिति; कब से; आकांक्षा |
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उत्सव अंक 1998 |
टोरस, दुखों के रंग और मैं, दिवास्वप्न |
जुलाई 1998 |
पोखरन 1998 (चार कविताएँ) |
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मार्च 1998 |
अवसान, वापस लौटे के स्वागत में, कोई नहीं से बेहतरी तक, जब तीस की होगी |
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मार्च 1999 |
मनस्थिति, एक दिन, अभी सबसे पहले |
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अर्थात् |
जनवरी-मार्च 2013 |
शहर लौटते हुए दूसरे खयाल, जिज्ञासु, नई भाषा, आदत है, एक अदद नाम, सफर |
आकंठ |
अक्तूबर-नवंबर 1989 |
याशा के लिए पहली कविता; भीख; बादलों ने तो, किसी एक मिडिल स्कूल में; वह भी कह गई थी; तेरा नौकर; ढाबे में; पहाड़-1, पहाड़-2 |
आजकल |
मार्च 1996 |
तुम्हारे लिए दूसरी कविता, नाराज़ लड़की के बारे में सोचते हुए, कविता और प्लेग |
आदमी |
अक्तूबर 1989 |
जैसे, स्पर्श |
आलोचना |
अक्तूबर-दिसंबर 2012 |
यूँ ही, इस तरह, तीन छोटी बच्चियाँ, टूटते परमाणु, ईश्वर भी अश्लील, लगा जैसे कि, आदमी और तानाशाह |
2020 |
मुंशीगंज की वे |
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इतवारी पत्रिका |
3 मार्च 1997 |
रुको, खबर, पहाड़, पाश की याद में, हर कोई, सफर में पूर्ण |
इंद्रप्रस्थ भारती
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जनवरी-जून 2009 |
वह आदमी कितना अजीब है, एक दिन धरती चकराएगी चाँद से, विसर्जन, प्रवासी कवि |
दिसंबर 2014 |
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उत्तर संवाद |
1994 |
शहर से बाहर |
उत्तर प्रदेश मासिक |
मार्च 1997 |
मंज़र, कंप्यूटर, उम्र |
उत्तरार्द्ध |
मई 1996 |
हम हैं, कल रात |
जुलाई 1987 |
बारूद शब्द बन फैलता है; आज शिराओं पर पहाड़ चढ़ाना होगा; यहाँ मत आना खाली हाथ |
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उद्भावना |
2021 |
किसान आंदोलन पर तीन कविताएँ |
2020 |
गीत – ये उदासी के मंज़र... |
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सितंबर '19 |
काश्मीर |
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मार्च-जून 2015 |
खबर, पहरेदार, गुफ्तगू |
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2011 |
देश संकट में है (तीन और कविताएँ) |
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जनवरी 2006 |
औरत गीत गाती है। |
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1998 (कवितांक) |
देखना ज़रा |
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अक्तूबर '97-मार्च '98 |
जागरण काल, बीस साल बाद, देखना जरा |
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1989 |
416 सेक्टर 38; बहुत मन करता है |
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कथन |
अक्तूबर-दिसंबर 2010 |
हर क्षण, हर सुबह रेत बनता प्राण, अद्भुत |
कादंबिनी |
जनवरी 2018 |
सपनों में बर्फ बनती धरती (4 कविताएँ) |
कृति ओर |
जुलाई-सितंबर 2009 |
उसे देखा, नियम, वही चौराहा |
क्वाली |
1987 |
तेरा नौकर, क्रांतिकारी |
कंचनजंघा - ई पत्रिका |
2021 |
आठ कविताएं (कोलकाता, और सात और) |
चकमक |
नवंबर 2020 |
दो कविताएँ |
जनवरी 2016 |
कहानी उड़ती बात की |
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अक्तूबर-नवंबर 2014 |
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सितंबर-नवंबर 2011 |
इंतज़ार |
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1999 |
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जनवरी 1996 |
देश बड़ा कब होता है |
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अगस्त 1994 |
कितने बिंदु |
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नवंबर-दिसंबर 1993 |
वो आई गाड़ियाँ |
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अगस्त 1988 |
बरसात |
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जुलाई 1987 |
मिट्ठू |
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मार्च 1987 |
भैया ज़िंदाबाद; इंतज़ार |
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जतन |
जनवरी-मार्च 2006 |
: सरहद, मौका |
2005 |
महक |
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1990 |
किसी एक मिडिल स्कूल में, फिलहाल |
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1989 |
आजकल, शिमला, गाँव, एस पी का दफ्तर |
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जनसत्ता |
20.12.2015 |
चारों ओर उल्लास है |
19.07.15 |
मेरी भाषाएँ, तुम्हें सोचता, ललमुनिया वापस आएगी, तुम्हें कैसे सपने आते हैं, फिक्र, वादा, अद्भुत, , सड़कक, गाड़ी और आदमा |
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28.12.14 |
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13.04.2014 |
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2013 |
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2013 |
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1 जनवरी 2012 |
अश्लील कविता, बस तुम्हें चाहता था, शब्द डराते हैं |
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13 जनवरी 2008 |
सुंदर लोग (चार कविताएँ) |
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2001 |
पूर्ण या अर्द्ध |
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27 सितंबर 1992 |
कितनी बार क्षमा, लिखनी हैं ढेर सारी कविताएँ वहाँ |
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अगस्त 1992 |
जिस दिन एल ए में दंगे हुए; नया सवाल |
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9 दिसंबर 1992 |
सात दिसंबर 1992: यहाँ नहीं कहीं और |
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जनवरी 1991 |
नया साल-1; नया साल-2; |
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अगस्त 1990 |
बहत्तर साल की थकान थी उसकी साँस में |
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अप्रैल 1990 |
छोटे शहर की लड़कियाँ; बड़े शहर की लड़कियाँ |
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23 नवंबर 1989 |
विदाई; निकारागुआ की सोलह साल की वह लड़की; पहाड़ |
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जन-संदेश टाइम्स |
10 जुलाई 2016 |
छ: कविताएँ |
जलसा |
2015 |
उन्नीस कविताएँ - जीना मरना; एक ग़लत बटन; कोई लकीर सच नहीं होती; पढ़ना; जैसे यही सच है; सुबह से रात तक; तैयार हूँ; घुसपैठिया; 'वो ख़लिश'; जो नहीं है मैं उसे सामने रखता हूँ, सभ्यता में मेरा क्या दिखेगा; आज मैं; तुम किस लिए; ऐसे ही कूद पड़ूँगा; तुम; नन्ही शै अँधेरे में; कोई भी; परदे पर जो रंग हैं तुम्हारे हैं; थकान |
2012 |
शब्द मिले अनंत तो क्यों प्रलापमय |
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2010 |
हुसैन सागर, जैसी हमारी आपस में जुड़ी उँगलियों में, मैं जब नंगा खड़ा होता हूँ, लौट कर लिखनी थी कविता जो, हम नाहक़ दोस्तों को कोसते रहे, मैं एकदिन उस छत्तीसगढ़ में जाऊँगा, जंग किसी के लिए वांछनीय नहीं होती |
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जानकीपुल वेब पत्रिका |
2020 |
खंडहर – एक सफर (43 गद्य कविताएँ) |
2013 |
क कथा, ख खेले, मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ, छुट्टी का दिन, अखबार नहीं पढ़ा, मैं किस को क्या सलाह दूँ, आखिरी धूप, जिज्ञासु |
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तथा |
अक्तूबर 2008 |
डायरी का पन्ना, क्यों लिखा, मौका, सरहद, वहाँ, बाहर अंदर, मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ, तोड़ा तभी तो जोड़ा. शहर में शहर की गंध है, बूँद-बूँद आँसू, उसे देखा |
दलित अस्मिता |
1996 |
अँधेरा- पाँच कविताएँ |
दशकारंभ |
अक्तूबर 1993 |
चाहे फूल खिले हों, नहीं, न्यूयॉर्क '90 और टेसा का होना न होना, काली आँखों वाली बीमार लड़की |
दृश्यांतर |
2014 |
कल आज, समांतर विश्व में रहता हूँ, कुछ है जो नहीं रिसता है, मैं और तुम, दो लफ्ज़, जली है एक बार फिर दाल |
देशज |
अप्रैल-जून 2023 |
कवि कुछ फ़िक्र करो, तब, बेशक शक |
देशधर्म(इटावा) |
जनवरी 1997 |
आधुनिक; उम्र; पहाड़ लाज से झुक गए थे; कविता; उठो; आजीवन; कविता-2; कविता नहीं; प्रासंगिक |
दैनिक भास्कर |
2015 |
वह |
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नवंबर 2014 |
दो कविताएँ |
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2005 |
इशरत |
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11 मार्च 2002 |
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26 सितंबर 2001 |
तुम परी थी जब, लिखो लिखो लिखो |
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दैनिक ट्रिब्यून |
14 जून 2009 |
हर दिन पार करता हूँ |
3 मई 2009 |
एक देश संकट में है |
|
दोआबा |
2019 |
छ: कविताएँ |
जनवरी-मार्च 2020 |
होमो सेपिएंस, धरती के गीत गाता हूँ |
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नया कदम |
1989 |
मेरा बाप; पहाड़ लाज से झुक गए थे |
नया पथ |
26 जनवरी 1998 |
डायरी में तेईस अक्तूबर; कविता नहीं |
जुलाई-दिसंबर 2019 |
जब तक चाँद ..., मुल्क की माली हालत..., नेता का तोहफा |
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नया ज्ञानोदय |
जनवरी 2015 |
कोई लकीर सच नहीं होती; पढ़ना |
2009 |
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नाबार्ड पत्रिका |
2005 |
सुबह, नदियाँ, बच्ची बोलेगी, एयरपोर्ट, जन-जन का चेहरा एक |
निर्माण भारती |
2019 |
जन्नत का चौकीदार |
परिवेश |
अप्रैल-सितंबर' 93 |
यहाँ नहीं कहीं और- 7 दिसंबर 1992 |
परिकथा |
(96)जनवरी-फरवरी' 22 |
कवि, धो लो, शहर कभी नहीं सोता, मैं चाहे तुम फितरतन, राजधानी में रात |
पश्यंती |
अक्तूबर-दिसंबर 2004 |
देशभक्त, सफर हमसफर, ठंडी हवा और वह, पिता, क कथा, ख खेलें, प्रेम, आ, कोई बाहर से आता है, बाहर अंदर, नाराज़सड़कें, भू भू हा हा, भारत में जी, फाँसी की सजा से लौटे हुए को, हम बातें करते हैं, नियम, जो है |
अप्रैल-जून 2001 |
लिखना चाहिए, घटनाएँ, अलग, आने वाले बसंत की कविता, दिवास्वप्न, कुछ भी नहीं, चोट, स्मित और तुम, कवि की याद में, उठो, मर्ज़, सखीकथा, यातना, छोटे-बड़े |
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अक्तूबर-दिसंबर 2000 |
बकवास, अश्लील |
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1999 |
निश्छल |
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जनवरी-मार्च 1998 |
शरद और दो किशोर; |
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अक्तूबर-दिसंबर 1997 |
एक नाम; नशे में; मौसम; लूट सम्मोहन और जाग; वर्कशॉप- दो कविताएँ; उफ हुमैरा |
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जनवरी-मार्च 1995 |
आज की लड़ाई; स्केच(?); हालाँकि लिखना था पेड़; परेशान आदमी; सेनेगल की फिल्म शुरू होेने के पहले; जैसे खिलता है आस्मान; ती और टू; सूरज सोच सकने को लेकर; फातिमा; दोस्त; चित्र, मैं भी लिखूँगी |
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1995 |
वह प्यार – 8 कविताएँ |
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पहल |
(119) 2019 |
सात कविताएँ |
(105)दिसंबर 2016 |
दस कविताएँ |
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(94)नवंबर 2013 |
सुबह-सुबह साँसों में, रात अकेली न थी, खिड़की की कॉर्नस पर दो पक्षी हैं, प्रतीक्षालय, क्या हो सकता है और क्या है, |
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(76) जनवरी-मार्च2004 |
लौटता मानसून, स्मृति, कहानी-1, कहानी-2, दिखना |
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(54)जून-अगस्त 1996 |
शीशा छोटा है, आधुनिक, सपने में |
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(37) 1988-89 |
सारी दुनिया सूरज सोच सके, नपटीतलाई सारुमारु को स्तूप, खान साहब की कहानी, बहुत मन करता है, |
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(31) जनवरी 1987 |
काला माइकल; पंजाब; मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम; |
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प्रज्ञा |
1996 |
अँधेरा - 5 कविताएँ
|
अप्रैल-जून 1993 |
इसके पहले कि |
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प्रतिबद्ध |
मई 1998 |
रुको; भाषा; संस्कृत असंस्कृत; हम हैं; अंत में लोग ही चुनेंगे रंग, गर्दभ कथा |
प्रतिलिपि |
2009 |
रद उड़ानें (ब्लॉग लिंक) |
2009 (#13) |
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प्रेरणा |
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अक्टूबर-जून 2008 |
एक समूची दुनिया होती है, सपनों में उनके भी |
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जनवरी-मार्च 2011 |
अहा ग्राम्य जीवन भी, कविता नहीं, इस धरती पर कहाँ बची है जगह, मैंने सुना, तीन सौ युवा लड़कियाँ, ऐसे ही, अर्थ खोना ज़मीन का, औरत बनने से पहले एक दिन, बड़े शहर की लड़कियाँ, चैटिंग प्रसंग, छोटे शहर की लड़कियाँ, डरती हूँ, एक दिन धरती टकराएगी चाँद से, हमारे बीच, उन सभी मीराओं के लिए, उसकी कविता, ठंडी हवा और वह, सखी कथा, एक और औरत |
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प्रसंग |
अंक 28-29 2024 कविता विशेषांक |
स्वाद, बची आग, आज रात, स्वर्ण युग, रंग बदलेगा |
पल प्रतिपल |
जनवरी-मार्च 2005 |
चैटिंग प्रसंग, मैंने सुना,अहा ग्राम्य जीवन भी, मैंने कहाँ जाना, हमारे बीच |
अक्तूबर-दिसंबर 1992 |
यह वह बनारस नहीं गिन्सबर्ग, वह सागर होंठों पर, डी एन ए एक सुंदर कविता है |
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जुलाई-दिसंबर 1990 |
छोटे शहर की लड़कियाँ, बड़े शहर की लड़कियाँ, विदाई, तेरा नौकर, किसी दिन तू आएगी, लड़ाई हमारी गलियों की, मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम |
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पाखी |
मई 2016 |
15 कविताएँ |
जुलाई 2014 |
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अगस्त 2013 |
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जुलाई 2012 |
अढ़ाई की कविता; पढ़ाई की कविता; कढ़ाई की कविता; चढ़ाई की कविता; लड़ाई की कविता; |
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पाठ |
जनवरी - 2020 |
दो छोर, थोड़ी देर और, सुनो जनाबे-आली, उन के साथ हुसैनीवाला सरहद पर, सूरज कहे सलाम. शाम मुहावरे सी थकान लिए आती है |
2018 |
ऐसे ही लँगड़ाते, तक्नोलोजी के साथ बूढ़े हुए हम,उम्मीद के पैंतालीस मिनट, रात अकेली न थी, जोर से मत कहना, समझ नहीं आता |
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अक्तूबर-दिसंबर 2009 |
एयरपोर्ट, नियम, कोई बाहर से आता है, नदियाँ |
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अप्रैल-जून 2009 |
एक और रात, देखना ज़रा, कंप्यूटर, देशभक्त |
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पांडुलिपि |
अक्तूबर-दिसंबर 2010 |
रंग हिरोशिमा, सालों बाद मिलने पर, रात भर बारिश, महानगर का जीवन |
पूर्वग्रह |
जनवरी - जून 2014 |
जब इतना सुख, मैं कविता में उसे ढूँढ लेता हूँ, पुराना खेल पुराना खयाल |
बनास जन |
जुलाई-सितंबर 2017 |
उलंग; आन फ्रांक, तुम्हारी डायरी कब रुकेगी; एंट्रापी का हिंदुस्तानी तर्जुमा, दुर फिटेमुँह, अँधेरे, आसान कविता, नींद आती है, लिख सकूँ, हर सुबह, लिखना चाहिए; करता हूँ आ जाएँ; सोचने की जगह |
जनवरी-फरवरी 2014 |
टोनी मॉरिसन इंग्लिशवालों के खिलाफ लिखती है; सड़क किनारे; आज शब्दों पर; थोड़ी देर ईश्वर; इसके पहले कि; इसलिए पेड़ बार बार; आज सुबह कुहरा; रोशनी; कहानियाँ; बाँध रहे दूरियाँ; दो लफ्ज़; मैं और तुम |
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मधुमती |
मई '19 |
पाँच कविताएँ |
नवंबर '19 |
आठ कविताएँ - जरा सी गर्द, नींद, रंग, तस्वीर, यहाँ, थकी हुई भोर, दरख्त, टुकड़े |
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मुक्तिबोध |
नवंबर '15-जनवरी '16 |
मेरी भाषाएँ, फिक्र, व्यथा, फिज़ां, आखिरी धूप |
अगस्त-अक्तूबर 2010 |
विकल्प, धुँधली तहों में से, रात भर बारिश, बीत चुकी रीत फिलहाल, रंग हिरोशिमा, आकाश उन्मुक्त |
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अगस्त 1998 |
अर्थ खोना ज़मीन का |
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रविवार डॉट कॉम |
14.2.15 |
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2014 |
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2012 |
अढ़ाई की कविता, पढ़ाई की कविता, चढ़ाई की कविता, कढ़ाई की कविता, लड़ाई की कविता |
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2011 |
वहां से गुज़रते हुए, पेटीशन, अरे!, दृश्य, मुस्कान और मुस्कान, आदत है |
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2010 |
छुट्टी का दिन, हर सुबह रेत बनता प्राण, वह औरत रोक रही है उसे, हर क्षण, जंग किसी के लिए वांछनीय नहीं होती, लौट कर लिखनी थी कविता जो, जीवन (ब्लॉग लिंक) |
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2009 |
सोचने में सबको मुस्कराना, हर बात पुरानी लगती है, आज सुबह है कि एक प्रतिज्ञा है, बीत चुकी रात फिलहाल, उनकी साँसें मुझमें चल रहीं, रात भर बारिश, रंग हिरोशिमा उन सभी मीराओं के लिए |
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राजस्थान पत्रिका |
फरवरी 2017 |
अब हर रात |
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वर्तमान साहित्य |
मई 2009 |
टेलर ऑफिसर; चाहूँ भी तो नहीं कह सकते; स्टोनहेंज; |
2007 |
इशरत |
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वसुधा |
जुलाई-सितंबर 2009 |
गीत नहीं भवानी मैं ध्वनियाँ बेचता हूँ, जो बहुत दूर से चलकर मुझ तक आया है, मैं कहता हूँ पेड़, खुशी से नाचती है कविता, |
मार्च 2006 |
एक और औरत, अड्डे पर कविता, घर और बाहर, जीवन |
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अक्तूबर 1989 |
साफबयानी, अब ज़िंदगी में, बच्चों से, कमला और मेरे सपने |
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वाक् |
2010 |
वह दिखती है साथ, जब सचमुच थक जाता हूँ, फिक्र, लज्जा पुरुष का आभूषण, कितनी लंबी कविता, खयाल खयाल नहीं, जा रहा हूँ किसी अक्षांश पर, हाजिरजवाब नहीं हूँ, एक नाटक देखता हूँ, एक और प्यासा, एक ही दिन, एक आदमी बिना मिले ही चला गया, दिन गर्म है लू चली है, दिल्ली में भी पेड़ हैं, धुँधली तहों में से, देश को देश से बचाएँ, देमोक्रितुस की यात्रा, चिढ़ घर से साथ चलती, बंद कमरे में, बहुत दूर से, आत्मकथा, अकेली औरत का काम, बदलना, बिल्लो |
वागर्थ |
मई 2024 |
क्या ठीक है?, इन दिनों |
दिसंबर 2021 |
रात, वैसे तो, चुप्पी |
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अप्रैल-जुलाई 2020 |
नींद, बोझ, मुझमें, अजीब पहेली है, टुकड़े |
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सितंबर 2019 |
सात कविताएँ |
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जुलाई 2018 |
ग़ज़ल, सोचने की जगह, कैसे आई यह बात, चमक, ठोस, नाज़ुक, बादल |
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जनवरी 2016 |
हिंसा और दो कविताएँँ |
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अक्तूबर 2014 |
सपना (पाँच कविताएँ) |
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जून 2012 |
अब वक्त कम ही बचा है न!; वह तोड़ती पत्थर; जली है एक बार फिर दाल; गहरे नीले में; धवनियों का नृत्य; हिलते-डुलते धब्बे |
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नवंबर 2008 |
ये जो फल हैं, किन कोनों में छिपोगे, आदतन बीत जाएगा दिन, एक दिन, कल चिंताओं से रात भर गुफ्तगू की, सचमुच कौन जानता है कि |
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दिसंबर 1996 |
पूरब को देखा मैंने, तिलचट्टे की मौत; तुम्हारा इंतज़ार |
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वाणी प्रकाशन समाचार |
मई 2011 |
पाँच कविताएँ |
विपाशा |
2019 |
अहल्या, आज़ादी, सूरज कहे - सलाम, शाम मुहावरे सी आती है |
2018 |
सुबह, बातें, सवाल, धूप, वहाँ, सपाट, रात अकेली न थी, फिजां, डर, दो लफ्ज़, सुबह |
|
मार्च-अप्रैल 2012 |
चींटी बन कर चट्टानों को, लिखना इसीलिए रुकता है, यही सृष्टि है, सरल बातें, कैसे कहूँ, विचार, सड़क पर चादर, रात भर बारिश, रह गई है, तस्वीर |
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नवंबर-दिसंबर 2010 |
आज खिड़की से, लिखते रहो, देमोक्रितुस की यात्रा, हर बात पुरानी लगती है, मेरे पूर्वजो, दिन गर्म है लू चली है, आदतन किसी ईश्वर को मिलती थी जगह |
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जुलाई-अगस्त 1996 |
उम्र, मनस्थिति-1; मनस्थिति-2; जीवन; पुल के नीचे नंगा बालक और आदमी |
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जनवरी-फरवरी 1993 |
शाम, वहाँ, पाँच बजे शहर लौटते, धुले कपड़े, वर्षांत |
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1990 |
दिन ऐसे बीतते हैं, तुमने कभी सोचा है, निकारागुआ की सोलह साल की वह लड़की |
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सितंबर-अक्तूबर 1987 |
किसी दिन तू आएगी, सिर्फ तुम्हारे लिए, इस वक्त, एक सौ छठी बार |
|
लल्लन टॉप वेब मैगज़ीन |
29 दिसंबर 2017 |
हम नहीं हटे, डर ही हटा पीछे कदम दो-चार (पाँच कविताएँ) |
शब्द संगत |
जुलाई 2009 |
मैं अब और दुखों की बात नहीं करना चाहता, शाम अँधेरे, तुम कैसे इस शहर में हो, सुबह तुम्हें सौंपी थी थोड़ी सी पूँजी, हिंदुस्तान जाग रहा है, पशोपेश परस्पर, कोई कहीं बढ़ रहा है, दाढ़ी बढ़ते रहने पर, वह जब आता है, जाने के पहले उसने जो कुछ कहा था, वह आदमी बस के इंतज़ार में, ढूँढ रहा है मोजे धरती के सीने में, इसलिए लिख रहा हूँ, किस से किस को, जब सारे भ्रम दूर हों, दो कविताएँ तुम्हारे लिए, मेरे सामने चलता हुआ वह आदमी, एक के हाथ में कटोरी भरी रेत है, अख़बार नहीं पढ़ा तो लगता है |
शब्द संसार प्रत्यूष नवबिहार |
फरवरी 2022 |
जाने वाले सिपाही का वापस आना |
शुक्रवार |
7-13फरवरी 2014 |
आम आदमी, सुबह से, फेसबुक, मंत्री |
संभव |
अक्तूबर '89-जून'90 |
पहाड़ (तीन कविताएँ) |
सर्जक |
जून 2003 |
खतरनाक, हम जो देखते हैं
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सदानीरा |
2016(17) |
तीस कविताएँ |
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2013 |
अब मैं चुप हूँ क्योंकि, हालाँकि आज, भय-कथा, हम जो स्थाई रूप से विस्थापित हैं, मेरे सीने में एक बड़ा कैनवस है, मैं क्यों गद्य कविताएँ लिखता हूँ, सिर्फ इसलिए नहीं, तस्वीर |
समकालीन जनमत |
जून 2024 |
2024, क्या ठीक है?, इन दिनों, ऐसे ही प्यार, छोटे-छोटे डर, क़रीब रहो |
मार्च 2022 (कविता विशेषांक) |
जीत, खूबसूरत, जाने वाले सिपाही का वापस आना, आदतन फितरतन |
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जनवरी 2022 |
शहर और शहर, हाँ यार |
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अगस्त 2019 |
दो गद्य कविताएँ |
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मार्च 2018 |
पढ़ो (2 कविताएँ), जुड़ो (2 कविताएँ) |
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नवंबर 2017 |
पाँच कविताएँ (सबके भीतर का गुजरात) |
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अक्तूबर 2017 |
एक कविता |
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दिसंबर 2015 |
चार कविताएँ |
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दिसंबर 2014 |
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मई 2010 |
मैं एक दिन उस छत्तीसगढ़ में जाऊँगा |
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18-24 जून 1989 |
यह समय |
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समकालीन भारतीय साहित्य |
नवंबर-दिसंबर 2014 |
रुक जाओ, कितने , दुःखों के सागर से चाँद, सहे जाते हैं
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1994 |
भाषा-1, भाषा-2 |
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समकालीन सृजन |
2006 |
पोखरन 1998, पिता |
समय चेतना |
1996 |
एक दोपहर तीसरी मंज़िल, नाराज़ लड़की का ख़त पढ़कर, ग्रामसभा, निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर; पुनश्च |
1995 |
डायरी में तेईस अक्तूबर, .. |
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समालोचन वेब पत्रिका |
2023 |
मुख़ालफ़त – ‘असहमति का साहस' संकलन में |
2023 |
और मैं उसे रंगीन छतरी बन, एक और है कि, अब जो हो, तभी तो, इक दम रह जाएगा, उम्मीद |
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2020 |
इंसानियत एक ऑनलाइन खेल है (14 गद्य-कविताएँ) |
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समयांतर |
मार्च 2024 |
दिखता है अब भी, जुगनू |
संवेद |
जनवरी 2015 |
यह अधिकार है मेरा, तो क्या, उन मुहल्लों में, मैं नहीं मानता, यह रुदन अनादिकाल से है, छोड़ जाऊँगा, बरकरार, बगुलो ओ पगले, प्यार को एक मौका, बारिश हो रही है, कुछ कहोगी, उसकी मिठास भर रहा हूँ, मेरे साथ, अंकुर फूटेंगे निरंतर, मैं नहीं चौंकूँगा, भूगोल, इतिहास, विज्ञान, साहित्य, संगीत |
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साखी |
अप्रैल 2010 |
षडरिपु कथा; प्रवासी कवि; इस तरह मरेंगे हम; कितना गुस्सा होता है; विसर्जन नाइन इलेवेन |
सामयिक वार्ता |
मार्च 2018 |
भाषा पर तीन कविताएँ |
जुलाई 2015 |
सुंदर लोग (दो कविताएँ) |
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साक्षात्कार |
अक्तूबर 2008 |
जो हूँ वह हूँ, आओ, मैं मानव, अब भी ढूँढ रहे गंतव्य, क्या महज संपादित हूँ, रंग पीला जिसे बाँटता हूँ निर्लज्ज, जो बहुत दूर से चलकर मुझ तक आया है, ईश्वर भी देखता होगा उसे मेरी ही तरह |
जनवरी 2006 |
अपने उस आप को; दो न; कहीं कहीं कोई कोई; औरत गीत गाती है; वक्त बिताने की कला |
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मार्च 2000 |
सात कविताएँ (वह जो बार बार पास आता है) |
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अगस्त 1999 |
सबसे पहले सबसे बाद; एक दिन में; आत्मकथा; निश्छल; रात; राष्ट्र |
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मार्च 1997 |
आ शब्द, तो फिर, प्रासंगिक, आजीवन, हमारा समय, कविता, आवाज़ें |
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मार्च 1994 |
वह प्यार – 6 कविताएँ |
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अप्रैल-मई 1992 |
फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी, एक दिन; बच्ची बोलेगी; बढ़ा एक हाथ लिए किस आकाश में, सेंध |
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1989 |
'क्यों चुप हो' और दो और कविताएँ |
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अक्तूबर-दिसंबर1987 |
चाह; वह मैं और कलकत्ता; क्या नींद भी हिंदू या सिख होती है; लड़ाई हमारी गलियों की, |
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हरिभूमि रविवार भारती |
9 अक्तूबर 2016 |
फिक्र |
हिंदुस्तानी ज़बान |
अप्रैल-जून 2019 |
सूरज की रोशनी में भी अँधेरा |
हंस |
दिसंबर 2018 |
तुमने पतंग उड़ाई है, 1995 में जर्मन दोस्त को लिखा खत, सोचने के बारे में, पागल मुझे जगाया, पुकारूँ, सोचने के बारे में |
दिसंबर 2008 |
उन सभी मीराओं के लिए, तुम हो न, तुमने पूछा |
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अप्रैल 1998 |
ऐसे ही, अर्थ खोना ज़मीन का, डरती हूँ |
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1997 |
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1996 |
डायरी में तेईस अक्तूबर, आधुनिक, |
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सितंबर 1995 |
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1994 |
शहर लौटने पर पहले पहले खयाल- दो कविताएँ |
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संपादित संकलन मेंं |
2023 |
समालोचन वेब पत्रिका - अरुण देव संपादित 'असहमति का साहस' में |
2017 |
अजय पांडे संपादित 'बच्चों से अदब से बात करो' (साहित्य भंडार) में : हिरोशिमा |
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2014 |
प्रणय कृष्ण संपादित 'बनारस की संस्कृति के प्रतिनिधि कौन' में: व्याख्यान |
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2014 |
प्रणय कृष्ण संपादित 'मोदी मॉडल की सच्चाई' में: व्याख्यान |
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2013 |
गिरिराज किराडु संपादित "डर की कविताएँ" (दखल प्रकाशन) में : डरती हूँ |
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दिसंबर 2002 |
असद ज़ैदी संपादित "दस बरस" में : 1 मार्च 2002, पूर्ण या अर्द्ध, वह जगह, आम, बहुत देर हो चुकी है |
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1995 |
प्रमोद कौंसवाल संपादित 'क्या संबंध था सड़क का उड़ान से' में हम हैं, छोटे शहर की लड़कियाँ |
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1993 |
विष्णु नागर/असद ज़ैदी संपादित "यह ऐसा समय है" में : सात दिसंबर 1992: यहाँ नहीं कहीं और |